जिस घर (घट) में सतगुर की सीख का अभाव (अविश्वास) हैं
वहाँ अनेक भाँति की बाधाएं हैं।
जैसे कि :-
:-दुख(तन,मन,बोल के व्यापित रोग)
:-दरिद्रता (वैचारिक क्षमता क्षीण होना, अनमोल समय को नींद या व्यर्थ के वाद विवाद में व्यतीत करना)।
:-कलह(तन,मन और बोल द्वारा जगङों की स्थिति बनाना)
:-कलपना (तन,मन,और बोल के द्वारा व्यर्थ के क्रिया कलापों से दुखित होना)।
:-घृणा(प्राणी मात्र के बीच में जाति-वर्ण,गरीब-अमीर, कुल-कुटुंब,उंच-नीच,
ज्ञानी-अज्ञानी, देश-परदेश, मत-सम्प्रदाय ईत्यादि वैचारिक विकारों का होना)
:-झूठ(एक कर्ता का विश्वास खोकर किरतम- पूजा-पाठ,तप-जप,नेम-वृत,
तीर्थ-मूरत,गृह-नक्षत्र, समस्त पांच तत्व के पसारे की आस्था स्थापित करना)।
चोरी:-( सृष्टि के सृजनहार से खोटी करतूतों को छुपाने का झूठा प्रयास करना अथवा
नाहक का कार्य करना)
हत्या:- (धार्मिक या कार्मिक आडम्बरों के कारण जीव जन्तु या मनुष्य प्राणी को हानि पहुंचाना)
मान:- सदैव काया के मान सम्मान की आशा रखना,अवतरित काया की मानता स्थापित करना,और तन को सजाने संवारने के व्यवधान में व्यस्त रहना।
मनी:- मन की झूठी कामनाएँ अथवा झूठी तृष्णाओं की आशा रखना।
*(और ये पांच महाविकार काम,क्रोध, लोभ, मोह,अंहकार)*
इन सभी विषै विकारों से निवृत्त होना की मात्र एक हीं राह हैं सच्चे सतगुरु का निरन्तर संग (सत्संग) करना।
सत्संग नियमित रुप से एकाग्रचित (एकांत) में,या दो प्राणी के बीच में,या साध संगत के बीच में या किसी भी माध्यम से करें पर जरुर करें।
सच्चा सत्संग निर्माण ज्ञान (मोक्ष दायनी ज्ञान) हैं जो समस्त ब्रह्मांड में अनेक भाव भावार्थ में और साध सतनामी मत में निरवाण ज्ञान पौथी में समाहित हैं।
निरवाण ज्ञान की मूल लगमात,साखी और वाणी मात्र निरवाण ज्ञान ग्रन्थ में हीं मर्यादित हैं।
सामाजिक समूहों में लेखन हेतु अति विचारणीय हैं।
।सतनाम।