निर्बधन बंधा रहे, बंधा निर्बंध होय ।
करम करै करता नहीं, दास कहावै सोय ॥७॥
गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कमी तोहि दास ।
ऋद्धि सिद्धि सेवा करें, मुक्ति न छाड्ये पास ॥८॥
दास दुखी तो सत् दुखी, आदि अंत तिहुँ काल ।
पलक एक में प्रगट है, छिन में करै निहाल ॥६॥
दात धनी याचै (१) नहीं, सेव करै दिन रात ।
कहै कबीर ता सेवकहि, काल करै नहिं घात ॥१०॥
सब कछु गुरु के पास है, पइये अपने भाग ।
सेवक मन से प्यार है, निसु दिन चरनन लाग ॥११॥
सेवक कुत्ता गुरू का, मोतिया वा का नाँव ।
डोरी लागी प्रेम की, जित खेंचे तित जाव ॥१२॥
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