सेवक और दास का अंग - कबीर साहेब द्वारा

सेवक और दास का अंग - कबीर साहेब द्वारा

 निर्बधन बंधा रहे, बंधा निर्बंध होय । 
 करम करै करता नहीं, दास कहावै सोय ॥७॥ 
 गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कमी तोहि दास । 
 ऋद्धि सिद्धि सेवा करें, मुक्ति न छाड्ये पास ॥८॥ 
 दास दुखी तो सत् दुखी, आदि अंत तिहुँ काल । 
 पलक एक में प्रगट है, छिन में करै निहाल ॥६॥ 
 दात धनी याचै (१) नहीं, सेव करै दिन रात । 
 कहै कबीर ता सेवकहि, काल करै नहिं घात ॥१०॥ 
 सब कछु गुरु के पास है, पइये अपने भाग । 
 सेवक मन से प्यार है, निसु दिन चरनन लाग ॥११॥ 
 सेवक कुत्ता गुरू का, मोतिया वा का नाँव । 
 डोरी लागी प्रेम की, जित खेंचे तित जाव ॥१२॥ 
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