एक बार वो घुमते घुमते एक छोटे से गाँव में पहुँचा जहाँ एक कुम्हार भगवान भोले बाबा के मन्दिर के बाहर मटकीया बेच रहा था और कुछ मटकीयों में पानी भर रखा था और वही पर लेटे लेटे हरिभजन गा रहा था।
राजा वहाँ आया और भगवान भोले बाबा के दर्शन किये और कुम्हार के पास जाकर बैठा तो कुम्हार बैठा हुआ और उसने बड़े आदर से राजा को पानी पिलाया। राजा कुम्हार से कुछ प्रभावित हुआ और राजा ने सोचा कि ये इतनी सी मटकीयों को बेच कर क्या कमाता होगा?
तो राजा ने पूछा क्यों भाई प्रजापति जी मेरे साथ नगर चलोगे।
प्रजापति ने कहा- नगर चलकर क्या करूँगा राजा जी?
राजा- वहाँ चलना और वहाँ खुब मटकीया बनाना।
प्रजापति- फिर उन मटकीयों का क्या करूँगा?
राजा- अरे क्या करेगा? उन्हें बेचना खुब पैसा आयेगा तुम्हारे पास।
प्रजापति- फिर क्या करूँगा उस पैसे का?
राजा- अरे पैसे का क्या करेगा? अरे पैसा ही सब कुछ है।
प्रजापति- अच्छा राजन, अब आप मुझे ये बताईये कि उस पैसे से क्या करूँगा?
राजा- अरे फिर आराम से भगवान का भजन करना और फिर तुम आनन्द में रहना।
प्रजापति- "क्षमा करना हे राजन! पर आप मुझे ये बताईये कि अभी मैं क्या कर रहा हूं और हाँ पुरी ईमानदारी से बताना।
काफी सोच विचार किया राजा ने और मानो इस सवाल ने राजा को झकझोर दिया।
राजा- हाँ प्रजापति जी आप इस समय आराम से भगवान का भजन कर रहे हो और जहाँ तक मुझे दिख रहा है आप पुरे आनन्द में हो!
प्रजापति- हाँ राजन यही तो मैं आपसे कह रहा हूं कि आनन्द पैसे से प्राप्त नहीं किया जा सकता है!
राजा- हे प्रजापति जी कृपया कर के आप मुझे ये बताने कि कृपा करें की आनन्द की प्राप्ति कैसे होगी?
प्रजापति- बिल्कुल सावधान होकर सुनना और उस पर बहुत गहरा मंथन करना राजन! हाथों को उल्टा कर लिजिये!
राजा- वो कैसे?
प्रजापति- हे राजन! मांगो मत, देना सीखो और यदि आपने देना सीख लिया तो समझ लेना आपने आनन्द की राह पर कदम रख लिया! स्वार्थ को त्यागो परमार्थ को चुनो! हे राजन अधिकांशतः लोगों के दुःख का सबसे बड़ा कारण यही है कि जो कुछ भी उसके पास है वो उसमें सुखी नहीं है और बस जो नहीं है उसे पाने के चक्कर में दुःखी है! अरे भाई जो है उसमें खुश रहना सीख लो दुःख अपने आप चले जायेंगे और जो नहीं है क्यों उसके चक्कर में दुःखी रहते हो!
*शिक्षा:-*
*आत्मसंतोष से बड़ा कोई सुख नहीं और जिसके पास सन्तोष रूपी धन है वही सबसे बड़ा सुखी है और वही आनन्द में है और सही मायने में वही राजा है!*
आज का संदेश -----
वस्त्रों का त्याग साधना नहीं हो सकता लेकिन किसी वस्त्रहीन को देखकर अपना वस्त्र देकर उसके तन को ढक देना यह अवश्य साधना है। ऐसे ही भोजन का त्याग भी साधना नहीं है। किसी भूखे की भूख मिटाने के लिए भोजन का त्याग यह साधना है।
साधना का अर्थ है स्वयं के स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज के लिए, राष्ट्र के लिए त्याग करना। दूसरों के लिए विष तक पी जाने की भावना के कारण ही तो भगवान शिव महादेव बने। जो स्वयं के लिए जीये वो देव, जो सबके लिए जीये वो महादेव।
आज का आदमी धर्म को जीने की बजाय खोजने में लगा है। धर्म ना तो सुनने का विषय है ना बोलने का, सुनते-बोलते धर्ममय हो जाना है। धर्म आवरण नहीं, आचरण है। धर्मं चर्चा नहीं चर्या है। सुप्रभातम् ।🙏🙏