अज्ञान को स्वीकार करना ज्ञान

*स्वीकार* *कर* *लो* *कि* *मैं* *अज्ञानी* *हूं* । और जैसे ही तुमने स्वीकार किया, उसी विनम्रता में, उसी स्वीकार में ज्ञान की किरण आनी शुरू होती है। अज्ञान को स्वीकार करना ज्ञान की तरफ पहला कदम है अनिवार्य कदम है।

 *तड़प* *कर* *देखो* " *सतगुरू* *की* *चाहत* *में* " पता चलेगा इन्तज़ार क्या होता है यूं ही मिल जाए बिन तड़पे "सतगुरू का दीदार"

तो कैसे पता चले कि प्रेम क्या होता है