संसार और संसारिक बंधनो से मुक्ति का बोध केवल सतगुर शब्द में हीं समाया हैं।
ध्यान पूर्वक सुनने से वो शब्द प्राणी के अंतर्मन में बस जाता हैं। मन में बस जाने के उपरांत प्राणी शब्द की कार(दायरे) में बाधित हो जाता हैं।
ऐसे प्राणी सृष्टि कर्ता की अपार दया महर से सदैव परिपूर्ण हैं।
सत शब्द सदैव साथ संगत (परमानी संतों के द्वारा किये गए ज्ञान विचार) में हैं।
जब प्राणी की सूर्त हीं पूर्ण रुप से शब्द में समाहित हो जाती हैं तो काया और माया भी स्वतः उसी शब्द में समाहित हो जाती हैं जिससे उसकी रचना हुई।
सृष्टि की आदि और अंत तक मात्र शब्द हीं शब्द हैं। मात्र शब्द हीं ध्यान योग्य हैं।
प्राणी मात्र जाग्रत(चेतन) अवस्था के दौरान हीं शब्द सुन सकता है।
गाफिल अवस्था(आवाज सुनकर भी अनसुनी करना) मृतक के समान हैं।
एक बार मृत हो जाने के उपरांत देहदुखों की लम्बी श्रंखला हैं।
सदैव अमरता की सामर्थ्य साधने की विनती अरदास सच्चे नाम से करें।
इस परदेश( पराये देश)में विनती सुनने वाले मात्र सृष्टिकर्ता हीं हैं।
सुनवाई तो निश्चित हैं।
इस संसार में जन्म पाकर मात्र बातचीत (कहना और सुनना या कहने सुनने की कला हासिल कर लेना)हीं वापसी जाने का जरिया नहीं हैं अब तो निश्चित तौर से अमल करना हीं करना हैं।
इस बार अमल कर लिया तो तन का कष्ट और मन की व्यथाओं से बंधन छूट जाएगा।