भाई नन्द लाल जी और गुरु गोबिंद सिंह जी साहिब जी

साखी
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भाई नन्द लाल जी और गुरु गोबिंद सिंह जी साहिब जी में बहुत प्रेम था । भाई नन्द लाल जी जब तक गुरु गोबिंद सिंह जी साहिब जी के दर्शन नहीं कर लेते थे, तब तक अपना दिन नहीं शुरू करते थे । एक दिन भाई नन्द लाल जी ने जल्दी कहीं जाना था, लेकिन गुरु साहिब सुबह 4 वजे दरबार में आते थे । उन्होंने सोचा चलो गुरु साहिब जहाँ आराम करते हैं, वहीं चलता हूं... दरवाज़ा खटखटा करके मिल के ही चलता हूँ ।
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सुबह 2 वजे गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी अपने ध्यान में बैठे थे, तब नन्द लाल जी ने
दरवाजा खटखटाया.....
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गुरु साहिब जी ने पूछा कौन है बाहर...?
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नन्द लाल जी - मैं हूँ !
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फिर पूछा - कौन है बाहर..?
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नन्द लाल जी ने कहा.... मैं हूँ ..!
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गुरु साहिब ने कहा जहाँ .....जहाँ ''मैं -मैं'' होती है वहाँ गुरु का दरवाज़ा नहीं खुलता ।
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भाई नन्द लाल जी को महसूस हुआ, कि..... मैंने ये क्या कह दिया.... और फिर दरवाजा खटखटाया ।
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तब गुरु साहिब जी ने फिर पूछा कौन है..?
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नन्द लाल जी ने कहा.... ''तूँ ही तूँ '' ।
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गुरु साहिब ने कहा इस में तो तेरी चतुराई दिख रही है... और जहाँ चतुराई होती है
वहाँ भी गुरु का दरवाज़ा नहीं खुलता ।
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ये सुन के नन्द लाल जी रोने लग गये कि इतना ज्ञानी होके भी तुझे इतनी अकल
नहीं आयी...... (नन्द लाल जी बहुत ज्ञानी थे, 6 भाषा आती थी , उच्च कोटि के शायर थे ,)
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उनका रोना सुन कर..... गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी ने पूछा बाहर कौन
रो रहा है... ?
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अब नन्द लाल रोते हुए बोले..... क्या कहूं सच्चे पातशाह..... कौन हूँ ..?
‘मैं’.... कहु तो हौमे.....(अहंकार) आता है..... ‘तूँ’.... कहूं तो चालाकी.... आती है
अब तो आप ही बता दो के.... मैं कौन हूँ...?
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और दरवाज़ा खुल गया, आवाज़ आयी बस यही नम्रता होनी चाहिए......जहाँ ये
नम्रता है , भोलापन है.... वहाँ गुरु घर के दरवाज़े हमॆशा खुले हैं..... और गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी ने भाई नन्द लाल को गले से लगा लिया .....
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शिक्षा - सतगुरु सेवक के प्रेम - प्यार और नम्रता को देखते हैं ।
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संत कहते हैं '' गुरु नहीं भूखा तेरे धन का, उन पर धन है भक्ति नाम का ''
गुरु बानी कहती है.....
" बिन बोलियाँ सब किछ जाणदा किस आगे करे अरदास "
हमें कभी भी मालिक से कुछ नहीं माँगना चाहिए वो खुद ही आपके सारे कारज संवारेगा अगर मालिक दे सकता है तो मालिक जान भी सकता है कि हमें क्या चाहिए। हम तो उस से सुख ही मांगते हैं। जब की हमें मालिक से मालिक को मांगना चाहये।
मगर गुरु नानक देव जी ने कहा है ....
" दुःख दारु सुख रोग भया "
मतलब साफ़ है कि दुःख क्यूँ मिलते हैं ताकि हमें मालिक की याद आये
जोकि कबीर साहिब ने भी फरमाया है
" दुःख में सिमरन सब करें सुख में करे ना कोए जो सुख में सिमरन करे तो दुःख काहे को होए "
हम हमेशा दुःख आने पर ही सिमरन करते है। संत महात्मा कहते है कि अगर सुख में सिमरन करते रहे गे तो दुःख आये गा क्यों। इसलिए सदा ही मालिक की याद में रहे और भजन सिमरन करते रहे।।
🌹सत्संग में आकर के जो बिछाते है दरी🌹उनकी ही किसमत होती है Bari🌹सत्संग में आकर जो बिछाते है मैट🌹वही जीत पाते है जिन्दगी का मैच  🌹सत्संग में आकर जो लगाते है मायक🌹उनका ही जीवन बनता है लायक🌹सन्तों की सेवा में जो पिलाते है जल🌹उनके हर मुशकिल का मिलता है हल🌹सत्संग में आके जो बिछाते है तीरपाल🌹उनका जीवन हो जाता है खुशहाल🌹सत्संग में आके जो चलाते है लंगर🌹खुशियों  से हरपल  झूमते  है वो नर🌹सत्संग में आके जो लगाते है स्टेज🌹उनका ही सुन्दर हर बनता स्टेप🌹
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अनमोल वचनः

परिवार की आर्थिक सुरक्षा के लिये हम लोग बीमा कराते हैं,
इसमें सारी उम्र पैसा देते है,
मरने के बाद इसका लाभ घर वाले लेते है,
एक बीमा खुद के लाभ के लिये भी कराओ,
सत्संग का बीमा "
भजन का बीमा "
सिमरन का बीमा "
यह बिना पैसे का बीमा है,
                और
इस बीमे के गारंटर स्वयं सतगुरु है,
सांस छूटते ही बीमा का तुरंत लाभ
जिंदगी के साथ भी
जिंदगी के बाद भी

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