जो धन सदा साथ रहता है।

जो धन सदा साथ रहता है वो तो
कमाते नहीं और जो धन कमाते
हैं वह सदा साथ रहता नहीं।

भक्ति कभी भी तर्क से सिद्ध नहीं
होती। भक्तिमार्ग में केवल मान लें
कि मालिक मेरे हैं।
मालिक हमसे प्रेम करते हैं इसकी
पहचान यह है कि हमें सत्संग मिल गया। सत्संग हमारे पुरुषार्थ से नहीं मिलता,केवल
मालिक की कृपा से मिलता है। एक मार्मिक
बात है कि अचानक कभी मालिक की याद
आ जाय तो समझें कि मालिक मुझे याद कर
रहे हैं। उस समय विशेषरूप से सब काम को
छोड़कर मालिक की याद में उनके नाम में लग जाना चाहिये।

जिसका अपने मन पर नियंत्रण नहीं,उसे मन की शान्ति नहीं मिल
सकती,जिसे मन की शान्ति नहीं
उसे सुख कैसे मिल सकता है।

भक्ति में मालिक की कृपा का आश्रय मुख्य है। भक्तों में अपनी साधना का अभिमान नहीं होता,क्योंकि वे अपना सम्बन्ध साधना
से नहीं,प्रत्युत मालिक से रखते हैं। उनको
मालिक की याद स्वतः आती है,याद करनी
नहीं पड़ती। यदि मालिक को याद करना
पड़ता है तो समझें कि अभी मालिक से
अपनापन नहीं हुआ।

धन के द्वारा दूसरों का भला कभी
हुआ नहीं हो सकता नहीं। जिसके भीतर धन की आसक्ति है वह भला कर ही नहीं सकता
भला उदारता से होता है,धन से नहीं। मुक्ति
भी उदारता से होती है। रूपयों का महत्व ही
नहीं है प्रत्युत रूपये के त्याग का महत्व है।
रूपयों का त्याग कोई उदार ही कर सकता
है। उन्नति धन से नहीं होती बल्कि स्वभाव
शुद्ध होने से होती है। मालिक के होकर फिर
मालिक को पुकारोगे तो मालिक आ ही-
जायेंगे।जैसे बालक को माँ की याद आती
है,ऐसे मालिक की याद आये। अपने को
मालिक का मान लो। वास्तव में हम सदा से
मालिक के ही हैं।आज ही विचार कर लो कि
हम मालिक के सिवाय किसी के नहीं हैं।