*खटकरम, दूजा भाव*
सतअबगत नाम जपते हुये, संसारी खटकर्मों पर विस्वास करना।
गणेश लक्ष्मी की मूर्ती रखना, गंडा तावीज बंधबाना। ज्योंतिस पर विस्वास करना।
कहनी और कथनी अलग अलग होना।
"दूजे नहीं दुजायगी, गुरु पुजमै सबकी आस"।
जिसके मन में ऐसे किसी संसारी खटकर्म की सोंच नहीं है।
जो किसी के साथ जुल्म नहीं करते हैं।
मालिक दाता ऐसे साध के मन की आस पूरी करते हैं।
"दूजा होय और रखै दूजायगी, कालौं रही कुबध नहीं भागी"।
जो उदादास बाबा के सिख नहीं हैं, जो साध नहीं हैं।
उनके प्रति भी अगर हमारे अन्दर दुर्भाबना है।
तब समझ लेना चाहिये कि अभी कालौं पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है।
यानी अभी बुरे बिचारों से पूरी आजादी नहीं मिली है।
"कुबध रखाय हिये का फूटा, सत्त शब्दां सै डोलै रूठा"।
जिसके पास कुबध यानी बुरे बिचार हैं, सन्त कह रहे हैं, उसकी अन्दर की समझ मर गयी है।
वह सतगुर साहिब के हुकमों पर नहीं चल पा रहे हैं।
हमारे गुरु के हुकम हैं, मेल, प्रेम, धीरज और अबगत आप की आस।
साध को साधना के लिये, निर्मल और द्रण मन की आवश्यकता है।
सतनाम
राजमुकट साध
सतअबगत नाम जपते हुये, संसारी खटकर्मों पर विस्वास करना।
गणेश लक्ष्मी की मूर्ती रखना, गंडा तावीज बंधबाना। ज्योंतिस पर विस्वास करना।
कहनी और कथनी अलग अलग होना।
"दूजे नहीं दुजायगी, गुरु पुजमै सबकी आस"।
जिसके मन में ऐसे किसी संसारी खटकर्म की सोंच नहीं है।
जो किसी के साथ जुल्म नहीं करते हैं।
मालिक दाता ऐसे साध के मन की आस पूरी करते हैं।
"दूजा होय और रखै दूजायगी, कालौं रही कुबध नहीं भागी"।
जो उदादास बाबा के सिख नहीं हैं, जो साध नहीं हैं।
उनके प्रति भी अगर हमारे अन्दर दुर्भाबना है।
तब समझ लेना चाहिये कि अभी कालौं पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है।
यानी अभी बुरे बिचारों से पूरी आजादी नहीं मिली है।
"कुबध रखाय हिये का फूटा, सत्त शब्दां सै डोलै रूठा"।
जिसके पास कुबध यानी बुरे बिचार हैं, सन्त कह रहे हैं, उसकी अन्दर की समझ मर गयी है।
वह सतगुर साहिब के हुकमों पर नहीं चल पा रहे हैं।
हमारे गुरु के हुकम हैं, मेल, प्रेम, धीरज और अबगत आप की आस।
साध को साधना के लिये, निर्मल और द्रण मन की आवश्यकता है।
सतनाम
राजमुकट साध