सिकंदर महान के समकालीन डायोजनीज के बारे में यह कहा जाता है कि सिकंदर भी डायोजनीज से ईर्ष्या करने लगा। वह पूरी तरह नग्न रहने वाला एक फकीर था, जिसके पास कुछ भी नहीं था। उसने हर चीज छोड़ दी थी। वह अपने आंतरिक संसार की खोज कर रहा था। उसके बारे में यह कहा जाता है कि उसने जब यह संसार छोड़ा, तो वह अपने साथ एक छोटा सा भिक्षा—पात्र रखा करता था। लेकिन तब एक दिन उसने नदी से एक कुत्ते को पानी पीते हुए देखा। उसने तुरंत अपना भिक्षा—पात्र फेंक दिया और कहा, यदि कुत्ता बिना उसके पानी पी सकता है, तो क्या मैं कुत्ते से भी गया बीता हूं? तब उसने अपने पास की हर चीज फेंक दीं, वस्त्र भी फेंक दिए और नंगा ही रहने लगा।
सिंकदर को उसके बारे में बहुत सी अफवाहें और कहानियां सुनने में आ रही थीं कि उस शख्स के अंदर कुछ खास बात है। उससे सम्मोहित होकर अंत में सिकंदर स्वयं उससे मिलने गया और यह देख सका कि उस व्यक्ति के अंदर कुछ ऐसा है जो उसके पास नहीं है। जाड़ों की वह एक सर्द सुबह थी सूर्योदय हो रहा था और वह रेत पर लेटा हुआ था। वह नदी किनारे लेटा हुआ कुनकुनी धूप का आनंद ले रहा था। सिकंदर ने उससे कहा—’‘ क्या मैं आपके लिए कुछ भी कर सकता हूं श्रीमान? मेरे पास काफी कुछ है और आप जो कुछ भी चाहें, उसे आपके लिए करने में मुझे प्रसन्नता होगी।’’
डायोजनीज हंसा और उसने कहा—’‘आप केवल एक ही काम कर सकते हैं कि कृपया हटकर खड़े हो जाए और मुझ तक आती हुई धूप न रोकें। इसके आलवा मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए। और इसे याद रखिएगा कि कभी भी धूप और किसी भी व्यक्ति के बीच में खड़े मत होना क्योंकि आप एक खतरनाक व्यक्ति दिखाई देते हैं। कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन में व्यवधान मत डालिए। बस इतना ही काफी है और इसके अलावा मैं आपसे कुछ भी नहीं चाहता क्योंकि जो कुछ मैं चाहता हूं वह सब कुछ मेरे अंदर ही है।’’
और सिकंदर यह अनुभव कर सका कि यह व्यक्ति सच्चा और प्रामाणिक है अपने अकेलेपन में आनंदित एक ऐसा व्यक्ति जिसकी चेतना एकीकृत और केंद्रित होकर थिर हो गई है, जिसके चारों ओर की तरंगें, उसके बोध को उपलब्ध होने की जैसे घोषणा कर रही है। उसे लगा जैसे उसके आस पास की आबोहवा उसके आंतरिक प्रकाश, आंतरिक अनुभव और अंदर की समृद्धि से महक रही हो। वह देख सका और महसूस कर सका। उसने झुककर प्रणाम करते हुए कहा—’‘ यदि अगली बार मुझे इस संसार में आने का अवसर मिला तो मैं परमात्मा से कहूंगा कि तू मुझे सिकंदर न बनाकर डायोजनीज बनाना।’’
डायोजनीज हंसा और उसने कहा—’‘ इतना लंबा इंतजार करने की कोई जरूरत नहीं है। और ठीक अभी भी डायोजनीज हो सकते हैं आप। निरंतर इधर— उधर घूम—घूम कर व्यर्थ लड़ाइयां लड़ते लोगों को जीतने का संघर्ष आखिर क्यों कर रहे हैं आप?''
सिंकदर ने कहा—’‘ पहले मैं मध्य एशिया और फिर हिंदुस्तान जीतना चाहता ''
हूं फिर सुदूर पूरब में.......।
डायोजनीज ने पूछा—’‘ फिर उसके बाद और फिर उसके भी बाद।’’
अंत में जब सिकंदर ने कहा कि वह पूरा विश्व जीतने के बाद विश्राम करेगा तो डायोजनीज ने कहा—’‘ मुझे तो आप लगभग एक मूर्ख दिखाई देते हैं, क्योंकि मैं दुनिया को बिना जीते हुए ही यहां विश्राम कर रहा हूं। आप भी अभी मेरी बगल में लेट कर विश्राम कर सकते हैं, क्योंकि नदी तट बहुत विस्तृत है और हम दोनों यहां मजे से रह सकते हैं। कोई दूसरा यहां आता भी नहीं है। आप अपने हृदय की कामना को पूरी करते हुए अभी विश्राम कर सकते हैं।’’
आपको आखिर रोक कौन रहा है? और मुझे ऐसा नहीं लगता कि अंत में विश्राम करने के लिए किसी को पहले पूरी दुनिया जीतना ही पड़े। आप किसी भी क्षण विश्राम में जा सकते हैं।
उसी क्षण सिकंदर ने अपनी निर्धनता को जरूर महसूस किया होगा। उसने कहा—’‘ आप कहते तो ठीक हैं लेकिन मैं ही पागल हूं। क्योंकि अभी तो यह मेरे लिए बहुत कठिन है कि मैं अपनी मुहिम से वापस लौट सकूं। मुझे तो पूरा संसार जीतना ही है, केवल तभी मैं वापस आ सकता हूं यहां।’’
और जब वह वहां से जाने लगा तब डायोजनीज ने कहा—’‘ स्मरण रखियेगा, कोई भी कभी भी वापस नहीं आ सकता, जब तक कि वह होशपूर्ण न हो। और यदि आप अभी भी इसी क्षण सजग है तो यात्रा स्वयं रुक जाती है। यदि आप सजग नहीं रहे तो कभी भी वापस न लौट सकेंगे।’’
और सिकंदर वहां कभी वापस न लौट सका।
वह घर लौटने से पहले ही मर गया।
🌺🌺🙏 प्रेम योग , प्रवचन #5
🌺🌺🌺🌺 ओशो
इतनी बड़ी कहानी का सार हमारे *साहिब*की इस एक ही वाणी में है।
*चाह मिटी चिंता हटी मनुवा वेपरवाह
जिनको कुछ नही चाहिये वो है शहंशाह*