मोह

पिता पहले बहुत परेशान रहते थे। उन्हें ठीक से नींद नहीं आती थी, उनका शरीर थका रहता था। वह चिड़चिडे हो गए थे, बात-बात पर नाराज़ हो जाते थे । हर समय कोई न कोई बीमारी घेरे रहती थी। पर फिर एक दिन कुछ बदल गया।

एक दिन माता जी बोलीं:

"मैं एक महीने के लिए मायके जाउंगी, परिवार के साथ बैठकर थोड़ा समय बिताऊँगीं।"
पिता ने बस इतना ही कहा:
"ठीक है।"

लड़का बोला:
"पिताजी, मेरी पढ़ाई में बहुत परेशानी चल रही है।"

पिता बोले:
"कोई बात नहीं बेटा, सुधार हो जाएगा। नहीं हुआ तो साल दोहराना पड़ेगा, लेकिन फीस तुम खुद दोगे।"

बेटी ने कहा:
"पिताजी कार का एक्सीडेंट हो गया।"

पिता बोले :
"कोई बात नहीं, गाड़ी मैकेनिक को दिखा दो नवनीत, खर्चा देखो और खुद व्यवस्था करो। जब तक ठीक नहीं होती, बस या मेट्रो से चलो।"

बहन बोली:
"भैया , मैं कुछ महीने आपके घर रहना चाहती हूँ।"

पिता ने सहजता से कहा:
"ठीक है, बैठक में रह लो। अलमारी में रजाई-कंबल हैं, निकाल लो।"

हम सब अचंभित थे — ये वही पिता हैं?
हमें लगा पिताजी किसी डॉक्टर से मिलकर आये हैं और शायद कोई दवा ले रहे हैं — 
जैसे "अब मुझे फ़र्क नहीं पड़ता" नाम की कोई चमत्कारी गोली!

हमने एक पारिवारिक सभा बुलाई ताकि पिताजी को “बचाया” जा सके।

लेकिन पिताजी ने बहुत शांति से सबको एकत्र किया और कहा:
"बहुत वर्षों तक मैं यही सोचता रहा कि मेरे दुख, मेरी चिंता, मेरी रातों की नींद और मेरे अशांत मन से शायद तुम लोगों की समस्याएँ हल हो जाएँगी। लेकिन धीरे-धीरे समझ आया — यह मेरा मोह था।

हर आत्मा अपने कर्मों की स्वामिनी है। किसी का सुख-दुख, उसका कर्तव्य, उसका निर्णय — सब उसका अपना है। मैं पिता हूँ, मशीन नहीं और ईश्वर भी नहीं।

अब मैंने यह स्वीकार किया है — मेरा धर्म है अपना मन शांत रखना, और हर किसी को उनके कर्मों के अनुसार जीने देना।

मैंने समय-समय पर ध्यान, सत्संग, उपनिषद, भगवद गीता, और आत्मचिंतन के माध्यम से जाना है — जीवन में आत्मनियंत्रण सबसे बड़ा तप है।

अब मैं सिर्फ प्रार्थना कर सकता हूँ, शुभचिंतन कर सकता हूँ, प्रेम दे सकता हूँ — लेकिन मैं किसी की ज़िंदगी नहीं जी सकता।

अगर कोई मुझसे मार्गदर्शन चाहे, मैं दूँगा, पर चलना उसे ही होगा। निर्णय उसके हैं, फल भी उसी को भोगने होंगे।

आज से मैं किसी का बोझ नहीं उठाऊँगा — न मानसिक, न भावनात्मक, न कर्मों का।

आज से सब मेरे लिए आत्मनिर्भर और जिम्मेदार व्यक्ति हैं।

सब चुप हो गए।

उसी दिन से घर में परिवर्तन आया। सबने अपने कर्म का दायित्व अपने ऊपर लिया।

हममें से कई, विशेषकर माता-पिता, यह सोचते हैं कि हमारा कर्तव्य है सबकी चिंता करना, सबका भार उठाना। लेकिन यही मोह हमें थका देता है, और दूसरों को निर्भर बना देता है।

सच्ची करुणा तब होती है जब हम दूसरों को उनके रास्ते पर चलने दें, और आत्मबल के लिए प्रोत्साहित करें।

हम धरती पर दूसरों के जीवन की नाव खेने नहीं आए हैं, केवल उन्हें उनकी पतवार पकड़ने की प्रेरणा देने आए हैं।

*सदैव प्रसन्न रहिये।* 
*जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।* 
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