अगर कोई किसी की प्रशंसा कर रहा हो तो आपको बहुत ऊब होने लगती है। प्रशंसा सुनने में आपको आनंद नहीं आता, लेकिन निंदा सुनने में आता है।
क्यों? क्योंकि जब भी आप किसी की निंदा सुनते हैं तो आपके अहंकार को लगता है कि आप बेहतर हैं। दूसरे की बुराई से यह सिद्ध हो जाता है कि आप अच्छे हैं।
जब आप किसी की प्रशंसा सुनते हैं तो आपको बहुत पीड़ा होती है, कि कोई आपसे बेहतर है — और भला ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई आपसे बेहतर हो? इसलिए आप निंदा को बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लेते हैं, और प्रशंसा को टालते रहते हैं।
अगर कोई कह दे कि फलां आदमी पापी है, तो आप कभी नहीं पूछते कि क्यों कह रहे हो? क्या कारण है? कोई सबूत है? नहीं। आप बस जाकर दूसरों को यह खबर दे देते हैं। इतना ही नहीं, आप उसमें बहुत कुछ नया भी जोड़ देते हैं। जितना आप जानते हैं उससे कहीं ज़्यादा आप कहते हैं।
लेकिन अगर कोई कह दे कि फलां आदमी महात्मा है, तो आप हजारों सवाल उठाते हैं। साफ़-साफ़ देखने के बावजूद भी आपके भीतर शक बना रहता है — कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं?
आपकी नजर में सब पापी हैं, और अगर कोई महात्मा समझा जा रहा है तो ज़रूर अंदर से छिपा हुआ पापी होगा। अभी पोल नहीं खुली है। सोचते हैं, आज नहीं तो कल खुल ही जाएगी, तब सबको पता चल जाएगा।
लेकिन यह मान लेना कि सब पापी हैं — यह आपका माना हुआ सत्य है, क्योंकि यह एक तरकीब है जिससे आपका अहंकार फलता-फूलता है, दोगुना-चौगुना बढ़ता है। सबको छोटा समझो, सबको बुरा कहो — तो आपको अच्छा लगता है। आपके अहंकार को खाद-पानी मिलता है।
~ ओशो 🌷