संतों ने अपने चित्त को चिरी यानि कागज माना है

*चित है चिरी, कलम है करनी,
                    आँक सुरत सै कीया*
चित, मन, बुद्धि, निरत, सुरत, और ध्यान, लगाकर भक्ति करने बाले संत ही, भवसागर पार कर सके।
संतों ने अपने चित को चिरी, यानी कागज माना, और उस पर करनी की कलम से, 'सत्तअबगत' नाम अंकित कर दिया।
"सुरत जहाँ ही संचरै, बहुत दूर की बाट"।
संतों ने अपनी सुरत, को संसार के छल, फरेब से अलग करके, सतगुर साहिब के बताये मार्ग पर समर्पित कर, यहीं बैठे, अबगत आप के घर की जानकारी प्राप्त की।
सुरत का सही स्तेमाल करने बाले संत ही, भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ सके।
"मिलगत होय जो मन को मूढ़ैं"।
मन को जिधर लगाओगे, वही प्राप्त होगा, लगन सच्ची होनी चाहिये।
संतों नें मुक्ति माँगी नहीं, मगर अपने मन को मुक्ति के मार्ग पर लगाकर, मुक्ति प्राप्त की।
"खिमा खिमत लिये रहै, ग्यान ध्यान राचंत"।
खिमा, यानी, दूसरो की बड़ी से बड़ी गलती को भी नजरंदाज कर देना, हर समय, हर हाल में शान्त रहना।
खिमत, यानी, ऐसी सहनशक्तिं, जहाँ अन्दर भी ब्यापना न हो।
जब ध्यान में, गुरु ग्यान की सीख और समझ होगी, तब ही हम मेल, प्रेम, और धीरज के मार्ग पर चल सकेंगे।
हमारे ध्यान में जो होता है, हम वही करते हैं।
"कर मन शब्द सतगुर ध्यान, जासै करज होय तेरा, यहीं मन मैं जान"।
'सत्तअबगत' नाम जपने, और सतगुर साहिब के हुकमों पर चलने से ही कारज बनेंगे। यह बात सिर्फ संत ही जान सके, तब ही वह पूरा लाभ प्राप्त कर सके।
"किरतम को बे ध्यान धरत हैं, महामूढ़ अग्यान"।
सत्तनाम।(राजमुकट साध)।