मन को निर्मल और पवित्र करने के बारे में कबीर साहब के दो दोहे।

मन को निर्मल और पवित्र करने के बारे में कबीर साहब के दो दोहे।

1) सब ही भूमि बनारसी,
    सब नीर गंगा तोय।
    ज्ञानी आतम राम है,
    जो निर्मल घट होय ॥

अर्थ:  जिसका मन निर्मल है, उसके लिए सभी स्थान बनारस की पावन भूमि की तरह ही पवित्र हैं। जिसका मन निर्मल है, उसके लिए सभी जल गंगा की तरह निर्मल है। जिसका मन निर्मल है, वही राम रहते है। अगर आप का मन निर्मल नहीं है तो वहाँ राम नहीं रह सकते । अपने मन को निर्मल बनाना इस बातको कबीर साहब ने सबसे जादा महत्व दिया है। अगर आपका मन निर्मल है तो फिर आपको तीरथ यात्रा करना, गंगा में डुबकी लगाना, मंदिर में जाकर राम को ढूंढने की जरुरत नहीं है। अगर आप का मन निर्मल नहीं है और आप मन को निर्मल बनाना छोड़कर केवल तीरथ यात्रा करना, गंगा में डुबकी लगाना, मंदिर में जाकर राम को ढूंढ़ते तो तो फिर उसका कुछ लाभ नहीं होगा।

कबीर साहब एक और दोहे में यही बात कहते है।
2) कबीर मन निर्मल भया,
    जैसे गंगा नीर।
    तो फिर पीछे हरी लागे,
    कहत कबीर कबीर।

अर्थ - अगर आपने अपने मन को पवित्र बनाया तो फिर आपको खुद भगवान ढूंढेगा, आपको फिर भगवान को ढूंढ़ने की जरुरत नहीं है। आपका मन अगर पवित्र रहेगा तो भगवान आपके पीछे आयेगा। मन को निर्मल और पवित्र रखने के बारे में ये दो दोहे है।

a) क्या आप मन को निर्मल और पवित्र बनाना छोड़कर भगवान को सिर्फ बाहर ढूंढ़ते हो?

b) क्या आप मन को निर्मल और पवित्र बनाना छोड़कर, सिर्फ तीरथ जाते हो?

c) क्या आप मन को निर्मल और पवित्र बनाना छोड़कर, सिर्फ गंगा में डुबकी लगाकर मन निर्मल और पवित्र हो गया ऐसे मानते हो?

d) क्या आप मन को निर्मल और पवित्र बनाना छोड़कर, सिर्फ कर्मकांड में उलझ गए हो?

e) क्या आप मन को निर्मल और पवित्र बनाना छोड़कर, केवल बाहरी अबडंबर को धर्म समझकर अपने आपको बड़ा धार्मिक समझते हो?

f) क्या आप मन को निर्मल और पवित्र बनाना छोड़कर, केवल अपने तन (शरीर) को उजला करते हो?

अगर ऊपर दिए हुए सवालो के जबाब में अगर आप का कोई भी जबाब हाँ में है तो फिर मन को निर्मल और पवित्र बनाने का काम कब शुरू करोगे?