मनुष्य का अहंम ही सबसे बड़ा भ्रंम है

*भागा भरम, भेद जब पाया,
              होसी बन्दे उनका चाँहा*
मनुष्य का अहंम ही सबसे बड़ा भ्रम (भरम) है।
जब तक यह रहेगा, हम मालिक को समझ ही नहीं पायेंगे।
हम अपने मन में, अपने को कुछ भी समझ रहे हों, मगर हमारे हाँथ में कुछ भी नहीं है।
हम चाँहे कितने भी बलबान, या बुद्धिमान ही क्यों न हों, मगर किसी भी मनुष्य को, यह पता नहीं है कि, वह इस संसार में कहाँ से आया है, और उसे कब, और कहाँ, जाना है।
हम सभी मेरा तेरा के, न जाने कितने भ्रम मन में पाले बैठे हैं।
जबकि हकीकत यह है कि, यह शरीर, जिसे अपना समझकर हम इतरा रहे हैं, यह भी मेरा नहीं है।
इसका संचालन भी, मालिक दाता ही कर रहे हैं।
क्या कभी कोई चाँहता है कि, वह सिथिल हो, बूढ़ा हो, बीमार पड़े, उसके बाल सफेद हों, उसके चेहरे पर झुर्रिया आ जाये, मगर यह सब होता है।
जब तक अहंम को मेंटकर, हमारा मन, इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करेगा कि, होगा वही जो मालिक चाँहेंगे, हम सदैव्य अशांत ही रहेंगे।
मालिक के सिबा हमारे प्रानी का अपना कोई नहीं है।
मालिक जिसे जहाँ भेजेंगे, उसे वहीं जाना पड़ेगा, इसमें न कभी किसी की चली है न चलेगी।
"पिन्ड पड़ै तेरी कछु न बिसावै, भाई करनी चालै साथ"।
मानो या न मानो, हमारे प्यारे शरीर के साथ जो भी होता है, या हो रहा है, वह हमारी अपनी करनी के  अनुसार ही हो रहा है।
  यह अकाट्य है, हँसकर स्वीकारो, या रोकर मगर स्वीकार करना पड़ेगा।
सत्तनाम।(राजमुकट साध)