अगर तुम अहंकार से भरे हो, तो सारी दुनिया तुम्हें सिखायेगी कि विनम्र हो जाओ,


बिन बाती बिन तेल              ~ओशो~ .
अगर तुम अहंकार से भरे हो, तो सारी दुनिया तुम्हें सिखायेगी
कि विनम्र हो जाओ, विनम्र होने से लोग तुम्हें पूजा देंगे।
मंदिरों में, मस्जिदों में, चर्चों में समझाया जा रहा है, विनम्र
हो जाओ क्योंकि जो विनम्र है, उसीको लोग सम्मान देंगे। यह
बड़े मजे की बात है। सम्मान की आकांक्षा विनम्र होने के लिये
आकर्षण बनायी जा रही है। यह विनम्रता झूठी होगी। यह
विनम्रता अहंकार का ही आभूषण होगा।
मंदिरों में समझाया जा रहा है, त्याग करो, लोभ मत करो;
क्योंकि जो छोड़ेगा, परलोक में पायेगा। यह बड़े मजे की बात है!
लेकिन पाने के लिये ही छोड़ा जा रहा है। छोड़ेगा कौन? यहां
जो ज्यादा चालाक है, वह छोड़ेगा। जो परलोक तक में इंतजाम
कर लेना चाह रहा है पहले से, वह छोड़ेगा। दान दो, ताकि
परमात्मा तुम्हें हजारों गुना वापस लौटाये। इतना सस्ता धंधा
तो यहां भी नहीं होता। यह सौदा तो बिलकुल बड़े मजे का है।
एक पैसा तुम दो, और करोड़ पैसे लौटते हैं। यह तो जुआ मालूम
होता है।
लाटरी कोई यहीं नहीं चल रही, स्वर्ग में भी चल रही है। और यहां
की लाटरी तो जरूरी नहीं कि तुम्हें मिले। चूक भी जाओ। वहां
की लाटरी कभी नहीं चूकती। तुमने एक पैसा दिया, करोड़ तय
हुए। शास्त्रों में कहा है, 'एक करोड़ गुना भगवान देता है; तुम दो!'
तुम्हें सिखाया जा रहा है दान, लेकिन उसके आधार में लोभ है।
यह दान झूठा होगा। इसलिए यह मुल्क पांच हजार साल से दान
की बात कर रहा है लेकिन इससे ज्यादा लोभी आदमी संसार में
कहीं भी खोजना कठिन है।
इस पृथ्वी पर जितना भयंकर लोभ भारत में है, उतना कहीं भी
नहीं। और दान की यहां चर्चा चल रही है, और दान भी हो रहा
है। मंदिर भी बन रहे हैं, मस्जिदें भी बन रही हैं, धर्मशालायें भी
खड़ी हो रही हैं। दान भी चल रहा है और लोभ का कोई हिसाब
नहीं है।
क्या हुआ होगा? कहीं कुछ गणित की भूल हो गयी है। हमारा
दान भी लोभ पर ही खड़ा है। हमारा परलोक भी इसी संसार
पर खड़ा है। छोड़ो, वहां पाना हो तो। यह किस भांति का
छोड़ना हुआ! छोड़ने का मतलब ही यह होता है कि अब पाने की
कोई आकांक्षा न रही। अब कुछ पाना नहीं है, इसलिए छोड़ते हैं।
छोड़ना पूरा हो गया, पूर्ण-विराम हो गया। इसके आगे कोई
पाने की दौड़ नहीं है। यह कोई इनवेस्टमेंट नहीं है। यह कोई नया
धंधा नहीं है जिसमें पैसा लगा रहे हैं। यह सिर्फ छोड़ना है। इससे
छुटकारा हुआ।
त्याग-जहां पूर्णविराम है, और आगे की मांग नहीं करता, वही
त्याग है। विनम्रता-जहां पूर्ण विराम है, और सम्मान की
आकांक्षा नहीं करती, वहीं विनम्रता है।
अहंकार को छोड़ नहीं सकता। अहंकार को छोड़ना हो तो हमें
अहंकार को फुसलाना पड़ता है, परसूएड करना पड़ता है। हम उससे
कहते हैं देखो, तुम विनम्र रहोगे तो सभी तुम्हें समादर देंगे और तुमने
अगर अहंकारीपन दिखाया, कोई तुम्हें आदर न देगा, जूते पड़ेंगे।
अगर फूल की मालायें चाहिये, तो बिलकुल गरदन झुकाकर चलो।
मगर भीतर आकांक्षा फूल की माला के लिये है।
विचार से विचार के बाहर तुम न जा सकोगे। क्या करोगे? अगर
तुम यह भी सोचने लगे, कैसे निर्विचार हो जाऊं? अनेक लोग कर
रहे हैं यह काम। सुनते हैं गुरुओं को, ज्ञानियों को, संत पुरुषों को,
तो खयाल आता है निर्विचार का। पर यह भी तुम्हारे भीतर तो
एक विचार है, यह एक वासना है, कैसे निर्विचार हो जाएं? अब
बैठे हैं आंख बंद करके और सोच रहे हैं, कैसे निर्विचार हो जाऊं?
क्या तरकीब है निर्विचार होने की? यह सब विचार चल रहा है।
यह निर्विचार भी तुम्हारे लिये एक विचार है। विचार से कभी
कोई निर्विचार को उपलब्ध न होगा। तुम्हारे भीतर जो चल
रहा है, उसके प्रति सजग हो जाओ। सोचोगे, और सोच बढ़ेगा।
एक-एक विचार से हजार विचार पैदा होते हैं। सोचने से कभी
कोई निर्विचार पर पहुंचा है? सोचने से और विचार..और
विचार..पागलपन आखिर में आ सकता है। विक्षिप्त हो सकते
हो, विमुक्त नहीं..!!


OSHO