मैं वर्षों तक जबलपुर रहा! वहां एक स्थान है पहाड़ियों में गुप्तेश्वर। गुप्तेश्वर के पीछे एक गुफा में एक साधु वर्षों से रहता है। वह गुफा प्यारी थी! एक दिन मैं भी जाकर वहां बैठ रहा। साधु कहीं बाहर गया था, स्नान करने गया था, लौटकर आया, उसने कहा :आप यहां पर कैसे बैठे हैं? यह गुफा मेरी है!
मैंने उससे पूछा : घर किसलिए छोड़ा, अगर गुफा तुम्हारी हो गयी? घर मेरा था, उसे छोड़कर आ गए हो; अब कहते हो गुफा मेरी!
महल छूट जाते हैं, इससे फर्क नहीं पड़ता; लंगोटियों पर मोह लग जाता है, कि लंगोटी मेरी है!
समझदार आदमी था; उसकी आंख में आंसू आ गए। उसने कहाः मुझे क्षमा कर दें! यह "मेरी' शब्द जाता ही नहीं। आप ठीक ही कहते हैं। सब छोड़कर आ गया हूं, लेकिन यह "मेरा' शब्द नहीं जाता।
जगत् छोड़ने से जाएगा भी नहीं। जगत् व्यवहार छोड़ने से जाएगा! और वह बड़ी अनूठी बात है--जगत्-व्यवहार छोड़ना! मेरात्तेरा जगत्-व्यवहार है। काम-चलाऊ है। यहां कौन किसका है! कौन अपना है कौन पराया है! चार दिन का मेला है, मेले में मिलना हो गया है। दोस्तियां बन गयी हैं, दुश्मनियां बन गयी हैं। कोई अपना हो गया है, कोई पराया हो गया है। यह सब व्यवहार है। इससे व्यवहार की तरह जान लेना, इससे मुक्त हो जाना है। इसको जिसने सत्य मान लिया, वह इसमें उलझ जाता है।
ओशो👣ज्योत से ज्योत जले