*सतगुर दरसे बिना, दुनी दोजक पड़ै,
दुख भरै लाख चौरास भारा*
दरसे,-(दरश जाना), यानी परख, पहिचान, और बात का, समझ में आ जाना।
जिन मनुष्यों को सतगुर साहिब की परख पहिचान नहीं है।
जो प्रानी सतगुर साहिब के बताये मार्ग पर नहीं चल रहे हैं।
वह मनुष्य कलजुगी चालों में लिप्त होकर, भार बांध रहे हैं।
संत कह रहे हैं........
"भार बांध भरमा चौरासी"।
भार बाँधना,- यानी दुख्खों की खान, चौरासी लाख, पशु, पक्छी, कीड़ा, मकोड़ों की जोनियों को प्राप्त करने की ओर अग्रसरित होना।
"नाम सै लागा रहैं, तौ नाय भार लिगार"।
" सत्तनाम हिरदे जान ले, तू बहुत कर ले प्यार"।
'सत्तअबगत' नाम को जपना, उस पर पूर्ण विस्वास करना,
नाम से प्यार करना ही, एक मात्र वह मार्ग है, जिस पर चलकर, चौरासी लाख जोनियों से बचा जा सकता है।
"दरसे पीछे दुबिधा आनी, बे तौ भौ सागर मैं तानी"।
सतगुर साहिब की बात समझ में आने के पश्चात भी,
उस पर नहीं चल पाना,
उनके हुकमों की अवहेलना करना,
मन में शंका, आशंका या किसी भी किस्म की दुबिधा का होना ही,
मनुष्य को कभी भवसागर पार नहीं करने देतीं।
घुटन, बेचैनी, अनमनसता, अनिन्द्रा, और अकुलाहट का, एक मात्र सबब है, बेसुधी, और अविस्वास।
"कोई साधू रा सुध पायी वौ एकै रंग सदाई"।
जिस साध ने मालिक की सुध पाली, यानी मालिक को जान लिया,
वह सारी लानत, मलानत, घुटन बेचैनी का परित्याग कर,
शांत, शीतल मालिक के रंग में रंग गये।
सत्तनाम।(राजमुकट साध)।
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जो प्राणी सतगुर साहिब के बताये मार्ग पर नही चल रहे
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