डॉ० स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती

●  *मनुष्य के इतिहास में एक विचित्र मृत्यु का दृश्य।*
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- डॉ० स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती

1883 ई० का दीपावली का दिवस । अजमेर नगरी की भिनाय कोठी के कमरे के कक्ष में शय्या पर लेटा एक व्यक्ति जीवन की अन्तिम श्वासों से संघर्ष कर रहा था । वह व्यक्ति तूफानों से जूझते-जूझते स्वयं एक तूफान हो गया था । सहस्रों वर्षों की रूढ़ियों और अन्धविश्वासों से ग्रस्त मानवता को संजीवित करने के लिए उसने एक थपेड़ दी । जनता तिलमिला उठी । निद्रा से मूर्च्छित-सा पड़ा जन समूह नींद से जगाने वाले के प्रति तीखी आँखों से देखने लगा । सब उसके विरोधी हो गए - देशी भी, विदेशी भी, अपने भी और पराए भी, आस्तिक भी और नास्तिक भी । सबने मिलकर षड्यन्त्र रचा । वे पहचान न पाए उस व्यक्ति को जो उनके लिए ही जूझा था । वह अकेला था, भगवान ही उसका भरोसा था । विष के घातक प्रभाव से त्रस्त शरीर इस योग्य नहीं रह गया था कि वह अब इससे काम ले सके । 'ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो' - ऐसा कहकर इसने प्रभु का स्मरण किया । चेहरे पर हल्की सी सन्तोष की मुस्कराहट आयी, और वह चल बसा । जो कुछ कर सका उसने किया । वह व्यक्ति था - दयानन्द ।

उसको किसने मारा, - नन्ही भगतिन ने नहीं, - उस अकेली ने नहीं । जैनियों ने, मूर्तिपूजकों ने, ईसाइयों ने, मुसलमानों ने, इस डॉक्टर ने या उस डॉक्टर ने, अंग्रेज़ी सरकार ने या जोधपुर के शासक ने । मैं तो कहूंगा - हम सब उससे छुटकारा चाहते थे । सबने मिलकर उसे मारा । आर्य समाज के थोड़े से व्यक्ति उसे बचा न सके ।

उन्नीसवीं शती की चिकित्सा पद्धति, उस समय की यात्रा के साधन - इन सभी बातों ने दयानन्द को सता सताकर, तड़पा-तड़पाकर मारा । जो 1883 ई. में हुआ, वही 1983 की बात होती, तो किसी के भी दिए गए उस साधारण विष से हम इस प्रकार उसे न मरने देते । 59 वर्ष की आयु उस हट्टे कट्टे व्यक्ति के मरने की भी कोई उमर है !! उसे न मधुमेह था न ब्लड प्रेशर, न हृदय रोग था, न कैन्सर !! फिर क्यों मरा ? वह मरना भी नहीं चाहता था । काम उसका अधूरा पड़ा था - पर मरने से वह डरता भी नहीं था । मृत्युकालीन उसकी मूर्च्छना और वेदना में भी उसकी अभूतपूर्व चेतना थी । मनुष्य के इतिहास में एक विचित्र मृत्यु का दृश्य । यह मृत्यु 'मृत्युञ्जय' दयानन्द की मृत्यु थी ।

[स्रोत: 'ऋषि दयानन्द जैसा मैंने समझा', पृष्ठ 4-5, संकलन: भावेश मेरजा]