बुरे कर्म है लोहे की ज़ंजीर और अच्छे कर्म है सोने की ज़ंजीर

बुरे कर्म है लोहे की ज़ंजीर और अच्छे कर्म है सोने की ज़ंजीर
सही बात है क्यूँकि दोनो कर्म किसी ना किसी स्वार्थवश किए जाते हैं बुरे कर्म सांसारिक फल प्राप्त करने के लिए और अच्छे कर्म उन बुरे कर्मों के दण्ड घटाने और आध्यात्मिक फ़ायदे के मोह के लिए
असल में कर्म ज़ंजीर हैं चाहे सोने की या लोहे की क्यूँकि जब तक कर्म यह समझ कर किए जाते है कि इससे हमें कोई ना कोई लाभ की प्राप्ति करनी है तो पक्का है वो हमारे साथ लग जाते है या यूँ कहें उनके फल हमारे साथ हो जाते है और जब तक उनका निपटारा या न्याय नहीं हो जाता वह हमारे साथ लगे रहते हैं
अकर्म का भाव है जब कर्म तो हो या किया जाए पर उसमें से करता भाव विलुप्त हो जाए यानी यह प्राणी सिर्फ़ ज़रिया मात्र है मालिक के न्याय का और इसे उस कर्म से किसी भी तरह के फल की अभिलाषा नहीं है
हर भाव, विचार, बोल और कर्म के फल हैं और वह फल हमें ज़रूर मिलते हैं पर जब हम समर्पण करके यह बात जान लें कि जो भी हो रहा है वह पहले से निर्धारित है इसलिए अगर हमारे भाव समर्पणमई हैं तो कर्मों से ऊपर उठकर हम सब ज़ंजीरों से बच पाएँ

कर्मों की काई मिट जाई
जब ही सतगुर सहज लखाइ


ध्यान में अपने अंदर में उतरने से हमें कर्मों से दूर हटकर अकर्म और स्वीकार्यता को जानने का अवसर प्राप्त हो सकता है जिससे हमें समझ आ जाए कि सारे कर्म कांड हमें मालिक से नहीं मिला सकते बल्कि स्वीकार्यता हमें मालिक के चरणों में पहुँचा सकती है

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