मालिक से अरदास करने में हमारा भाव सांसारिक चाहनाओं की पूर्ति के लिए

 "अरदास"

मालिक से अरदास करने में हमारा भाव सांसारिक चाहनाओं की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि मालिक दाता के चाहे को देखने का और मालिक के दर्शन की चाहना का भाव होना चाहिए..  जब भी हम मालिक से अरदास करें तो हम सब बहुत ही गरीबत भाव से ये माँग करें कि मालिक हमें तरह के गुनाह पाप से बचाकर, इस भवसागर रूपी संसार से उबार कर अपने चरणों में स्थान देऔ और  हमें आवागमन के दुखों से छुटकारा दिला कर अमरापुरी दरबार में पहुँचाय देऔ..

अरज ग़रीबी बोला जी, आजिज बंदा करै अरदास ।।

सत्तनाम

*सतगुर सेती मन परिचावै*
साध का काम है कि उसके मन में हमेंशां गुरु के हुक्मों की जानकारी हो।
"ऐसी कह  आया सतगुर सच्चा, तुम सत्त समझते रहियौ बच्चा"।
सतगुर साहिब ने महादेव पार्वती का विवाह करवाने के पश्चात, उन्हें सत्त को समझते रहने का हुकम दिया।
इस सीख का मतलब है, कि यह मनुष्य जन्म, यह ग्रहस्थ जीवन, और यह संसार सब कुछ उसी मालिक की देन है,  जिसका यह संसार है।
"सत्त का परचा सही खडा है,खलक खोलडा औझू चांहै"।
हम जो भी देख रहे हैं, जो भी भोग रहे हैं, यह तन यह प्रान सब कुछ उसी मालिक की देन  हैं।
वही संचालक हैं इस संसार के उन्होंने ही इसकी रचना की है।
बांकी संसार में जो भी है झूंठ और दिखावा है।
  खलक खोलडा यानी संसार में बांकी सब खोखली बातें हैं।
इससे चांहना करना इससे मांग करना, या किसी किस्म की आस करना फिजूल है।
 "रतन तके सतवादी जानौ, खारी समुन्दर खलक बखानौ"।
जिन्होंने सतगुर साहिब के हुकमों को पूरा पूरा माना वही पूरा लाभ प्राप्त कर भवसागर से पार हुये।
जो संसारी खोखले बखानों में उलझ गये, उन्हें इस खारे समुन्द्र का खार प्राप्त हुआ।
"ते बूढ गया भवसागर मांहीं"।
साध का काम है।
"सत समझकर सुमरन करना"।
यानी सतगुर साहिब के हुकमों पर चलना, अबगत आप का चांहां देखना।
सतनाम
राजमुकट साध