एक बार की बात है एक छोटे से मच्छर का सामना शेर

एक बार की बात है एक छोटे से मच्छर का सामना शेर से हो गया। शेर गुर्राने लगा । वह मच्छर पर झपटने लगा । पर मच्छर घबराया नहीं । वह शेर को चुनौती देकर बोला भले ही तुम शेर हो परंतु मैं सवा सेर हूँ । मैं तुम्हें ऐसा पाठ पढ़ाऊंगा कि सदा याद करोगे। मैं  वह कमाल करके दिखाऊंगा तुम सोचते ही रह जाओगे ।

यह सुनकर शेर को बहुत ज्यादा गुस्सा आ गया । वह मच्छर पर बार-बार झपटता, परंतु मच्छर उड़कर उसकी पीठ की ओर बार बार आक्रमण करता । वह शेर को काटता जिससे शेर को बड़ी बेचैनी होती । शेर उछल पड़ता और मच्छर को आघात पहुंचाने का यत्न करता पर मच्छर उसकी पकड़ में नहीं आता । वह कभी उसके मुंह पर बैठ कर काटता तो मच्छर को मारने के लिए अपना पंजा अपने मुंह पर मारता । परंतु मच्छर उड़ जाता और शेर का पंजा लगने के कारण शेर का अपना मुंह ही लहू लुहान हो जाता । इस प्रकार शेर और मच्छर की लड़ाई में मच्छर ने जंगल के राजा शेर को मिनटों में ही परास्त कर दिया । शेर थक कर और जख्मी होकर एक ओर पड़ गया ।

यह देखकर मच्छर को अपने ऊपर अभियान हो गया कि मैंने तो शेर को हरा दिया, और इधर उधर ऐसे उड़ने लगा कि जैसे वही सबसे शक्तिशाली है । मचल-मचल कर उड़ता हुआ इधर उधर उड़ने से बिना देखे समझे मकड़ी के जाल में घुस गया । फट से मकड़ी आई और मच्छर को दबोच लिया । बस फिर क्या था मकड़ी ने उसको काल का ग्रास बना दिया । जो मच्छर शेर के सामने गुर्राता फिर रहा था उसे मकड़ी साबुत ही निगल  गई । मच्छर हो या शेर हो चाहे मनुष्य हो उसका अहंकार ही उसे अस्त कर दे देता है ।

कर्म का प्रभाव स्वाभाविक है । परंतु मैं कर रहा हूँ । यह बोध आत्मा की सबसे बड़ी बीमारी है । मनुष्य के अंदर मैं मालिक हूँ, मैं करने वाला हूँ इसका बोध होने के कारण ही अहंकार पैदा हो जाता है ।

वास्तव में देखा जाए तो जिंदगी के सारे संकल्प, सारी गहरी भावनाएं, सारे निर्णय ऐसे मालूम पड़ते हैं जैसे किसी रहस्यमय शोर से आ रहे हो जैसे जन्म और मृत्यु । न जन्म हमारे हाथ में न ही अपनी मृत्यु । थोड़ा विचार करें क्या है हमारा ? भूख लगती है, नींद आती है फिर टूट जाती है । सांस अपने आप ही आती जाती है,  शरीर की सभी महत्वपूर्ण आंतरिक क्रियाएं अपने आप चल रही है । बचपन आता है,जवानी आती है , बुढ़ापा आता है,  हमारे बिना किए सब कुछ हो रहा है ।  यदि जवानी आपकी होती तो आप उसे रोक लेते, लेकिन हम भ्रमवश कहते हैं मेरा बचपन, मेरी जवानी । अगर हम पूरी जिंदगी के बारे में आँखें खोलकर सोचे तो  पाएंगे कि ' मैं ' को कहीं भी खड़ा नहीं किया जा सकता ।

परमपिता परमात्मा ने आकर स्वयं यह बताया है कि यह सृष्टि चक्र में जो कुछ भी हो रहा है या होगा या जो कुछ हुआ था वह पूर्व नियोजित है । सृष्टि चक्र बना बनाया है , यह हूबहू हर 5000 वर्ष में होता रहता है । पर  ज्ञान की परिपक्वता के अभाव में व्यक्ति यही कहते हैं कि हमने किया यह मेरा परिवार है, यह मेरी संपदा है, इसे मैंने मारा, इसे मैंने  बचाया और न जाने कितने व्यर्थ के दायित्वों का क्षुद्र अहम् अपने पर लादे रहता हैं ।

अहंकार से मुक्त होने के लिए हमें यही सोचना है कि सब कुछ ईश्वर का है और सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर देने से, सब कुछ ईश्वर का हो जाता है इससे स्वतः ही अहंकार समाप्त हो जाता है ।

दूसरा जब हम निमित्त भाव से कार्य करते हैं तो भी हमारे अंदर नम्रता का गुण विकसित होता है । जिससे अहंकार मिट जाता है ।